शनिवार, 17 जनवरी 2009

राष्ट्रीय हितों से खिलवाड़

किसी भी देश की अदालत का यह काम नहीं हो सकता और न होना चाहिए कि वह अपने यहां की सरकार को बार-बार बताए कि घुसपैठ रोकना आवश्यक है और इसे रोकने के लिए इस-इस तरह के उपाय करने चाहिए? यह भारत का दुर्भाग्य है कि सुप्रीम कोर्ट को केंद्रीय सत्ता को चेताना पड़ रहा है कि बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ देश के लिए एक बड़ा खतरा है। यह पहली बार नहीं जब सुप्रीम कोर्ट ने अवैध रूप से आ बसे बांग्लादेशी नागरिकों को लेकर केंद्र सरकार को फटकार लगाई हो, लेकिन उसकी सेहत पर कोई असर पड़ता नहीं दिखता। इसमें संदेह है कि सुप्रीम कोर्ट की ताजा फटकार के बाद केंद्र सरकार और संबंधित राज्य सरकारें चेतेंगी, क्योंकि समाज और राष्ट्रहित उनकी प्राथमिकता सूची में नजर ही नहीं आते। इसका प्रमाण पश्चिम बंगाल सरकार की इस घिसी-पिटी दलील से मिलता है कि राज्य के नागरिकों और बांग्लादेशियों में अंतर करना कठिन है? क्या कोई बताएगा कि अंतर खोजने की समस्या क्यों आ रही है? आखिर ऐसे उपाय क्यों नहीं किए जा रहे जिससे बांग्लादेशी नागरिक भारत में प्रवेश ही न करने पाएं? अभी हाल में गृहमंत्री पी चिदंबरम ने यह कह कर देश को चौंकाया था कि उन्हें समझ नहीं आ रहा कि बांग्लादेशियों को वर्क परमिट क्यों जारी किए जा रहे हैं? अब यदि हमारे गृहमंत्री को भी इसकी जानकारी नहीं तो फिर इसका मतलब है कि कोई यह देखने-सुनने वाला नहीं कि बांग्लादेश की सीमा पर क्या हो रहा है? आश्चर्य नहीं कि इसी कारण सीमा पर बाड़ लगाने का काम पूरा नहीं हो पा रहा है। यह आघातकारी है कि सुप्रीम कोर्ट ने न केवल यह पाया कि उसने चार वर्ष पहले विवादास्पद आईएमडीटी अधिनियम रद करते हुए जो निर्देश जारी किए थे उनकी अनदेखी की गई, बल्कि यह भी महसूस किया कि बहुद्देशीय पहचान पत्र प्रदान करने का काम कच्छप गति से हो रहा है। बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ को रोकने और अवैध रूप से आ बसे वहां के लोगों को बाहर निकालने में जानबूझकर बरती गई लापरवाही का दुष्परिणाम यह है कि पिछले दस वर्षो में बांग्लादेशियों की संख्या एक करोड़ से बढ़कर दो करोड़ हो गई है। यह और कुछ नहीं भारतीय शासनतंत्र के निकम्मेपन का प्रमाण है। जो शासन-प्रशासन अपने समक्ष उपस्थित खतरों से मुंह मोड़ने में लगा रहता हो वह देश को संकट की ओर ले जाने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता। देश के नागरिकों को पहचान पत्र देने का निर्णय बहुत पहले ले लिया गया था, लेकिन अभी तक वह सरकारी फाइलों में ही कैद है। यदि सभी नागरिकों को पहचान पत्र दिया जा सके तो तमाम समस्याओं का समाधान संभव है, लेकिन शायद हमारे अधिसंख्य नेताओं का हित समस्याओं के बने रहने में ही है। यही वे नेता हैं जो कदम-कदम पर नाकारापन दिखाते हैं और जब न्यायपालिका उन्हें फटकारती है तो यह रोना रोते हैं कि देखिए, कार्यपालिका के काम में हस्तक्षेप हो रहा है। क्या वे यह चाहते हैं कि न्यायपालिका भी उनकी तरह आंख मूंद कर बैठ जाए और देश को गर्त में जाने दे? यह जानना कठिन है कि न्यायपालिका की चेतावनी नेताओं और नौकरशाहों पर असर करती है या नहीं, लेकिन आए दिन की ऐसी चेतावनियों से देश-दुनिया को यही संदेश जाता है कि भारत एक ऐसा ढुलमुल राष्ट्र है जहां राष्ट्रीय हित भी ताक पर रख दिए जाते हैं।

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