सोमवार, 29 दिसंबर 2008

एक नापाक गठबंधन

एक नापाक गठबंधन पाकिस्तान की सरकार और विशेषकर सेना तथा आईएसआई के गठजोड़ ने एक बहुत खतरनाक व अनैतिक कार्य यह किया कि मजहबी कट्टरवादी तत्वों को बड़ी संख्या में पाकिस्तान की औपचारिक सेना के सहयोग के लिए तैयार किया। यह अलग बात है कि इस समय इनमें से कुछ संगठन पाकिस्तान की सेना पर ही हमला कर रहे हैं, पर योजना यह थी कि वे पाकिस्तान की सेना के सहायक के रूप में भारत से लड़ेंगे। जब अमेरिका व पाकिस्तान मिलकर सोवियत संघ की सेना के विरुद्ध अफगानिस्तान में अभियान चला रहे थे तो इसके लिए मुस्लिम कट्टरवादी तत्वों के बहुत से दस्ते तैयार किए गए। सोवियत संघ की सेना की अफगानिस्तान से वापसी के बाद सवाल यह था कि इन आतंकियों का क्या उपयोग किया जाए? वैसे तो भारत के विरुद्ध ऐसे तत्वों को तैयार करने की प्रवृत्ति पाकिस्तानी सेना में पहले से थी, पर जब ये इतनी बड़ी संख्या में युद्ध का वास्तविक अनुभव करने के बाद उपलब्ध थे तो पाकिस्तान की सेना ने इन्हें अपनी भारत विरोधी रणनीति में अधिक व्यापक स्थान देना आरंभ कर दिया। इनको दो तरह की भूमिका दी गई। एक भूमिका तो भारत में, विशेषकर कश्मीर में आतंकवादी हमले करने की थी। दूसरी भूमिका यह थी कि भारत के विरुद्ध युद्ध की स्थिति में पाकिस्तान सेना का साथ दें। पाकिस्तान की यह नीति बेहद अनैतिक और खतरनाक इस कारण थी कि यदि दुनिया के सब देश इसे अपनाना आरंभ कर दें तो हमारा विश्व एक बहुत ही हिंसक हमलों से घायल विश्व बन जाएगा और सभी मजहबों की क्षति होगी। इसके बावजूद विश्व के अधिक शक्तिशाली देशों, विशेषकर अमेरिका ने आरंभिक दौर में इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए कुछ नहीं किया। कारगिल में जनरल मुशर्रफ (जिनकी मुख्य पहचान यह रही कि वह एक पूरी तरह अवसरवादी व्यक्ति हैं) ने इन आतंकियों की सैनिकों के साथ घुसपैठ करवा कर इस प्रयोग को एक नई ऊंचाई तक पहुंचा दिया। 9/11 के बाद जोर-जबरदस्ती से अमेरिका ने मुशर्रफ को अपने आतंकवादी-विरोधी युद्ध में शामिल करवाया तो स्थिति बदलने लगी। इनमें से कई आतंकवादी संगठनों ने पाकिस्तान की सेना पर हमले किए और मुशर्रफ की हत्या के प्रयास भी किए। लाल मस्जिद पर सैन्य कार्रवाई के बाद यह तनाव और तीखा हो गया। पाकिस्तानी सेना और कट्टरवादी आतंकियों के आपसी संघर्ष में दोनों ओर के सैकड़ों व्यक्ति मारे गए। इसके बावजूद पाकिस्तानी सेना व आईएसआई में इतनी कट्टरवादी सोच के अधिकारी भरे हुए हैं कि वे इन कट्टरवादी तत्वों से संबंध विच्छेद करने का मन नहीं बना पाए है। अब वे इन आतंकी संगठनों को कई श्रेणियों में बांट कर चल रहे हैं। पहली श्रेणी में वे संगठन हैं जो भारत, अमेरिका-नाटो सहित पाकिस्तानी सरकार और सेना के भी खिलाफ हैं। उनसे लड़ना तो पाकिस्तान सेना की मजबूरी है। दूसरी श्रेणी में वे आतंकी संगठन हैं जो भारत व अमेरिका के विरुद्ध हैं। पाकिस्तान की सेना कोशिश करती है कि इन आतंकी संगठनों से ज्यादा न लड़ा जाए। तीसरी श्रेणी में वे संगठन हैं जिन्होंने अब तक मुख्य रूप से भारत-विरोधी हिंसा ही की है। इनको पाकिस्तान की सेना का संरक्षण मिलता रहा और अमेरिका ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। अभी कुछ सप्ताह पहले तक ही लश्करे तैयबा को इसी श्रेणी में रखा जाता था, पर मुंबई हमले में अमेरिकी नागरिकों की हत्या के बाद इस बारे में विचार बदला। अमेरिका व ब्रिटेन ने लश्कर के विरुद्ध भी दबाव बताया। पाकिस्तान सरकार ने भी लश्कर के विरुद्ध कुछ कार्रवाई की। सवाल यह है कि अमेरिका की घेराबंदी के चलते लश्कर व पाकिस्तानी सेना की मित्रता और कितने दिन तक निभेगी? इस पूरे घटनाक्रम का निष्कर्ष यह है कि पाकिस्तान अपनी सेना और कट्टरवादी आतंकियों के अनैतिक गठजोड़ के कारण गंभीर खतरे में फंस चुका है। इस अनैतिक नीति की तुलना में भारत ने अपनी सेना को पंथनिरपेक्ष रखने की जो राह अपनाई है वह पूरी तरह उचित व नैतिक है। हाल में कुछ हिंदू संगठनों ने एक गंभीर गलती यह की थी कि वे भी कुछ अवकाश प्राप्त सैनिकों की सहायता से हथियारों के प्रशिक्षण शिविर चलाने लगे। जरूरत इस बात की है कि इस गलती को स्वीकार कर इस अध्याय को आरंभिक स्थिति में ही समाप्त कर देना चाहिए। जो देशभक्त युवा आतंकवाद से लड़ने के लिए आगे आना चाहते हैं उन्हें किसी कट्टरवादी संगठन में न जाकर सीधे भारतीय सेना, सुरक्षा बलों व गुप्तचर संगठनों के कमांडो दस्तों से जुड़ना चाहिए। आतंकवादी विरोधी गुप्त कार्रवाइयां नैतिकता के आधार पर ऐसी होनी चाहिए जिसमें निर्दोष लोगों को नुकसान न पहुंचे। यह नैतिकता की कसौटी बहुत जरूरी है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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